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Monday, February 28, 2011


हिंसा का सिधांत
हमारा देश निरंतर प्रगतिशील है,और हर दशक में इसकी जरूरते,समस्याऐ बदलती रहती है,इनमे से कुछ समस्याओ का हल होता है कुछ अनुत्रित सी सुरसा की तरह मूह बाये खड़ी रहती है,लेकिन जनाक्रोश जब बढ़ता है जब समस्याऐ हल नहीं होती और उनका अम्बार लग जाता है,और हुक्मरान उनको सुलझाने,हल करने की गंभीर कोशिश नहीं करते,जिसकी वजह से हुक्मरान और आवाम के दरम्यान दूरिया बढती चली जाती है.
फिर जरुरत महसूस होती है आवाम को हुकूमत के बदलाब की,लेकिन हुक्मरान बदलाब आने नहीं देना चाहते ,खटमल की तरह कुर्सी की गद्दी से चिपके रहते है,
समस्या और दूरिया जब बढती चली जाती है तो संघर्ष में तब्दील हो जाती है,इस संघर्ष की रूपरेखा और हथियार इस बात पर निर्भर करते है की हुक्मरान ने दमन का कौन सा तरीका अपनाया है और चुना है!
अगर हुक्मरान ने बन्दूक के सहारे दमनकारी रक्तजनित तरीका अपनाता है तो अमूमन शोषित वर्ग भी बन्दूक उठा लेता है,फिर जो हिंसा होती है उसका जिमेदार सिर्फ पीड़ित वर्ग अकेला नहीं होता,उसकी जिमेदारी हुकूमत की भी होती है!
फिर अकेले शोषित को दोष देना कहा तक उचित है,कहा का न्याय है,साश्त्रो में लिखा है मातृभूमि की रक्षा के लिए हथियार उठाना धर्म है.....(क्रमस)
जय क्रांति जय हिंद
हेमू सिंह

Sunday, February 27, 2011


यह दौर है भरोसे के त्रासद अंत का
यह दौर है भरोसे के त्रासद अंत काए संबंधों और संवेदनाओं के लगातार छीजते चले जाने का। इस तरह का रोना प्रबुद्ध चेतनाकी दुनिया में फर्ज अदायगी की अक्षर परंपरा बन चुकी है। पिछले तकरीबन दो दशकों में हमारा समय और समाज इन स्थितियों से इतनी बार दो.चार हो चुका है कि अब न कोई सनसनी उसे सहमाती हैए न किसी त्रासद खबर पर वह चौंकता है। बावजूद इसके कहना यही पड़ेगा कि भीतर तक पसर जाने वाले जिस स्याह और क्रूर परिवेश को रचने व उसके साथ जीने की लाचारी हम चाहकर भी नहीं लांघ पा रहेए वह मानवीय चेतना के इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षाकाल है।

काश विभाजन दिलो की वजाय सिर्फ जमीन,साहित्य,भाषा,इंसानों का होता तो बेहतर रहता....
तब के लगे ज़ख़्म आज तक नहीं भरे,रह रह कर इनमे टीस उठती है.जिस तथाकथित धर्म की सनक पर सवार होकर दो मुल्को का निर्माण हुआ,वो सनक पाकिस्तान को तो ले डूबी,अब उसी रास्ते की और हम भी अनजाने में कदम बढा रहे है,उन्होंने देश से बड़ा धर्म को समझा नतीजा भी भोग रहे है

उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर
उम्रकैद की सजा भुगत रहा हूँ मै
ठहरा हुआ वक़्त भी एक ना एक प्रशन
खड़े कर देता है
बहरूपिया बनकर खुद को बचाता हूँ मै
कितना मुश्किल है जीना
एक पेपरवेट की तरह पड़े रहना
विनती तो है उस खुदा से जो जल्दी
मौत का जेवर पहना दे
इस मुर्दा मुल्क से उठा दे
टोपी उठा कर फिर सजदा कर रहा
हूँ मै
उम्र के इस अंतिम पड़ाव पर
उम्रकैद की सजा भुगत रहा हूँ मै
जय क्रांति जय हिंद
हेमू

बड़ी ही सफाई से बापुवादियो ने कथित बापू को मिश्र की क्रांति में फिट कर दिया...
वह शायद ये भूल गए की इस अति नाटकीय घटनाक्रम का सुखद अंत वहा की जनता की मेहनत का परिणाम है और कैंसर से जूझते तानाशाह का लाचारी भरा समर्पण है !
अगर वहा कोई हिंसा नहीं हुई तो उसका कारण तानाशाह की दूरदर्शिता थी,वो समझ चूका था की अगर शांतिपूर्वक बात नहीं मानी तो जनता किसी चौक चोराहे पर लटका देगी!
मै बापुवादियो से पूछना चाहता हूँ की आप हर सफल आन्दोलन का श्रेय बापू के विचारो की विजय के रूप में बापू को क्यों दे देते हो?यह क्यों भूल जाते हो क्रांति का हथियार परिस्तिथिया तय करती है,और पटकथा हालत लिखते है.!
आपके बापू मिश्र से आगे का रास्ता भूल गए थे क्या जो लीबिया नहीं पहुचे,या वहा की जनता का दिमाग ख़राब हो गया था,जो उन्होंने हथियार उठा लिए,अपनी कुन्षित विचारधारा से देश का बेडा गर्क तो कर ही दिया है दूसरो को तो छोड़ दो,और ये अर्नगल प्रलाप बंद करो!
स्विस बैंक से पैसा तो आता रहेगा,पहले गरीब का हाथ वापस लौटा दो!
जय क्रांति, जय हिंद
हेमू

कल अमेरिका वाली बहिन जी गाँधी गाँधी कर रही थी आज उन्हें और उनके देश के पापा ओबामा को कौन सा मच्छर काट गया,या गाँधी के सिधांत दो दिन में भूल गए,नकली गांधीवादियों ने असली वाले की ऐसी की तैसी कर के रखी है.
जय क्रांति जय हिंद
हेमू सिंह

विश्व शांति का दरोगा अब बम वर्षा करेगा

अमेरिकन साम्राज्यवाद के विरोधी लीबिया के तानाशाह कर्नल गद्दाफी गृह युद्ध जैसी स्तिथि में फंसे हैं। अमेरिका को आज जनता के मानवाधिकारों की याद आने लगी है। इसके पूर्व ईराक में परमाणु शस्त्रों की बात प्रचारित कर अमेरिकन साम्राज्यवाद ने निरस्तीकरण के नाम पर लाखों नागरिकों की हत्या कर ईराक पर कब्ज़ा कर लिया है। मिस्त्र, बहरीन व टयूनेशिया जैसे मुल्कों में उसके पिट्ठू तानाशाह थे और उन तानाशाह के स्थान पर वह नए लोगों को स्थापित करना चाहता था। महंगाई बेरोजगारी के खिलाफ जनता की आवाज को सहारा देकर अमेरिकन साम्राज्यवाद ने नेतृत्व परिवर्तन कर अपनी पकड़ मजबूत की है। बहरीन में तीस हजार अमेरिकी सैनिक हैं। सैकड़ों मिसाइल्स तैनात हैं जिनका रूख ईरान की तरफ है। मिस्त्र में अमेरिकन खुफिया एजेंसी सी.आई.ए का सबसे बड़ा यातना सेंटर है। अब वहां जन असंतोष के नाम पर अपने विरोधी मुल्कों पर कब्ज़ा करना चाहता है। किसी देश की संप्रभुता को नष्ट करने के लिए उसके पास मानवाधिकार निरस्तीकारण लोकतंत्र, न्याय, स्वतंत्रता जैसे हथियार हैं जिनके बहाने वह अपने विरोधी मुल्कों में अपनी पिट्ठू सरकार स्थापित कराने का कार्य करता रहा है। आज उसी हथियार का सहारा लेकर विश्व शांति का दरोगा लीबिया पर बम बरसाने का कार्य करने की योजना बना रहा है। इसकी पुष्टि अमेरिकन विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता फिलिप क्राउले ने की है। लीबिया पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने का काम शुरू हो गया है। दुनिया को नियंत्रित करने के लिए उसकी पिट्ठू संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ ने बड़ी तेजी से कार्य करना शुरू कर दिया है लेकिन जब वियतनाम, अफगानिस्तान व ईराक जैसे मुल्कों की बात आती है तो संयुक्त राष्ट्र संघ कि कोई हैसियत नहीं रहती है बस वो कोरी बयानबाजी कर के रह जाता है।

सुमन
लो क सं घ र्ष

जंगल में शेर और हाथी जब सैर पर निकलते है तो बहूत से कुत्ते और गीदड़ उन्हें मार्ग में मिलते है जो की भोक भोक कर उनके सव्र का इम्तिहान लेते है,लेकिन शेर और हाथी कभी पलट कर जवाब नहीं देते,अपनी राह चले जाते है!
लेकिन इस मुठभेड़ में कुत्तो और गीदड़ को कृतिम बहादूरी की गलतफहमी हो जाती है की शेर और हाथी डर गया,साथियों शेर और हाथियों की संख्या हमेशा कुत्तो और गिदडो से कम होती है,और इससे उनके राज़ पर कोई फर्क भी नहीं पड़ता...!
दोनों हे वक़्त आने पर सब कुछ रोंद देते है ,हमे भी किसी के मुह लग कर अपना वक़्त बर्बाद नहीं करना,रोंद कर आगे बढ़ना है,हाथी और शेर का काम नहीं है भोकना,अब वक़्त आ गया है पगड़ी संभालने का गंजे सिर ने बहूत राज़ कर लिया,अभी नीली स्याही से उम्मीद बची हुई है.लेकिन जिस दिन भी ये उम्मीद भी जाती रही तो देश की सत्ता पगड़ी के हाथ में लेने के लिए हमे वो हर काम करना होगा जो नातिक्तावादियो को गलत लगता है...!
क्योकि ये हमारे मुल्क हमारी आवाम हमारी कोम का मामला है!
जय क्रांति जय हिंद
हेमू सिंह

Thursday, February 17, 2011

दो व्यक्तियों का नजरिया


नजरिया किसी का किसी भी मामले में एक हो यह जरुरी नहीं,प्रत्येक व्यक्ति अपने अपने नजरिये से सोचता है!सिक्के को बीच में रख कर देख रहे दो व्यक्तियों का नजरिया हमेशा एक दुसरे के उल्ट होता है,क्योकि एक व्यक्ति उसमे हेड देख रहा होता है दूसरा व्यक्ति उसमे टेल,दोनों ही अपनी अपनी जगह सही होते है क्योकि वो जो देख रहे होते है,वो उनकी नज़र में सही होता है !
जरुरत तो ये है की वो अपनी पोज़िसन बदल कर देखे तो ये बात साफ़ हो जाएगी की जो वो देख रहे थे उसके विपरीत वो चीज थी जो वो नहीं देख पा रहे थे,जिसके पीछे अनुचित वहस कर रहे थे!
लेकिन ऐसा बहुत कम देखने को मिलता है की दोनों अपनी पोज़िसन बदलने को तैयार रजामंद हो जाये,इसका कारण अहम् है जो व्यक्ति को आत्मअभिमानी बना देता है जो की सवस्थ वहस का दुश्मन है!
अक्सर जब वहस शुरू होती है तो वह थोड़ी देर में मूल मुद्दों से भटक जाती है और वहा आकर खड़ी हो जाती है जो गैरजरुरी मुद्दे होते है!
अब्बल तो हमारे मुल्क में अवाम बहस चाहता नहीं है,अगर फिर भी अगर किसी वैचारिक मंच पर किसी मामलात पर वहस शुरू होती है तो कुछ गैरजरूरी लोग उसमे जाति, वंश, प्रान्त, सभ्यता, संस्कृति,धर्म घुसेड देते है और और मंच को राजनेतिक अखाडा बना देते है,और इसी दरमयां मूल मुद्दा किसी कोने में पड़ा दम तोड़ देता है,और तो और उन्हें ये भी लगता है फेसबुक, ऑरकुट किसी क्रांति को लाने में सहायक नहीं है, आज का युवा इन लोगो से सवाल पूछता है अगर ये सही है तो आप यहाँ क्या कर रहे हो जब आपको इन बातो से कोई सारोकार नहीं है!बात अगर महापुरुषों की आती है तो हम स्वतन्त्र है,की हम किसको चुने,और ये जरुरी भी नहीं वो चुनाव गाँधी का हो.....
जय क्रांति,जय हिंद
हेमू ९०२४१११९६६

Tuesday, February 15, 2011


तेरे खंडे ने जिना दे मुह मोड़े
आज फिर ओ सानु आज ललकारदेने
बाजा वालिया बाजा नु भेज मुडके
तितर फिर उडारिया मारदेने

भूखे भेडिये


आज सुबह एक खबर देख कर मन बेहद विचलित हो गया। ये सिर्फ एक खबर नहीं थी, एक तमाचा था, एक सवाल था कानून व्यवस्था पर। खबर यह थी कि तीन लड़कों ने एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार की कोशिश नाकाम रहने पर उसके हाथ पैर काट दिये। सरसरी तौर पर तो यह भारत में रोज होने वाली एक आम घटना है। लेकिन ये घटनाएं रोज क्यों होती है। यकीनी तौर पर इसका कारण है नकारा कानून, नकारा पुलिस, मुर्दा अवाम।
अगर ये लड़की आज मर जाए तो बेहतर है। नहीं तो जब तक केस चलेगा, तब तक हर पल हर रोज मरेगी। शारीरिक तौर पर तो इसका उत्पीड़न हो ही चुका है, मानसिक बलात्कार हर नई सुबह, हर नए सवाल के साथ होगा। आजादी से आज तक हम क्यों कोई कारगर कानून नहीं बना पाए। जो इन बलात्कारियों के खिलाफ हथियार साबित होता। इतना बड़ा जुर्म करने के बाद भी अगर इन लड़कों को सजा मिलेगी भी तो 5 या 10 साल की। क्या यह सजा पर्याप्त है? क्या इससे उस लड़की को न्याय मिल पाएगा? होना तो यह चाहिए कि पीड़ित लड़की को 30 दिन में न्याय मिले और दोषियों को कम से कम फांसी की सजा सुनाई जाए। क्योंकि जिस दिन किसी लड़की से बलात्कार होता है। उसी दिन उसकी मानसिक हत्या हो जाती है। मैं मेरी बेटी पर जो कि मात्र 6 साल की है, हर वक्त चौकस नजर रखता हूं कि कहीं किसी भूखे भेडिये की नजर उस पर न पड़ जाए। जब मै घर से बाहर होता हूं मेरी पत्नी उस पर नजर रखती है, स्कूल में उसका भाई रखता है। वो तो यह भी नही समझती कि हर वक्त उसके साथ कोई न कोई क्यो होता है। ये डर क्यों हम क्यों नही खत्म नही कर पाएं। क्यों हम इन भूखे भेडियों से निपटना नही सीख पाए। क्यो हमने इन भेडियों के सामने हथियार डाल दिये है और बेटियों को पेट में ही निपटाना शुरू कर दिया। क्या ये हल था समस्या का या लाचारी थी या बुजदिली थी? अब वक्त आ गया है, वक्त रहते जाग जाने का। हो सकता है कल जिसके साथ बलात्कार करके ऐसा हाल किया जाए वो हमारी मां, बहन, बेटी भी हो सकती है। वध के लिए हथियार उठाना धर्म है। नपुंसक सरकार, नाकारा कानून और पुलिस अगर अवाम को इंसाफ दिला पाने में ऐसे ही असफल होती रही तो वो दिन दूर नही जब लोग अपने हाथ में हथियार उठा लेंगे। बलात्कारियों के खिलाफ नरम और अहिंसक कानून एक बडा जुर्म है, मानवता के खिलाफ। इन्हे तालिबानी तरीके से ही सजा देनी होगी। विकसित होने की दौड़ में हम मानवता को बहुत पीछे छोड़ आए है। अच्छा होता हम आदिमानव ही रहते।

रातो रात सिर्फ मौसम बदलते है विचारधाराए नहीं बदलती, और जो विचारधाराए रातो रात बदल जाती है वो कुटिल राजनीती होती है, देशभक्ति नहीं होती!
अक्सर एक गाँधी नामे का अनुत्रीत प्रशन बार आज का चुनोती के बार भूतकाल से उठकर बर्तमान में चला आता है.. होना तो यह चाहिए की इस सवाल को आज का युवा चुनोती के रूप में लेकर हल करे लेकिन वो कुछ कुतर्कियो के छलाबे में आकर इस सवाल को उठाने वाले व्यक्ति की निष्ठां पर ही सवाल उठा देता है!
गाँधी की कथनी और करनी में विरोधावास इससे बात से सावित होता है, जिस रामराज्य की कल्पना वो करते थे,उस रामकथा के महानायक भागवान राम ने रावण के वध के लिए अश्त्र उठाये थे जो की गाँधी की अहिंसावादी नीति के खिलाफ था,अगर ये मान भी लिया जाये गाँधी ने इस बात को नजरंदाज करके रामराज्य और रामकथा में से चुनिन्दा बाते हे जीवन में चुनी जो उन्हें अच्छी लगी तो उन्होंने भगत सिंह के बम्ब को नजरंदाज क्यों नहीं किया क्यों उनकी निष्पक्ष देशभक्ति की भावना का सम्मान नहीं किया,क्यों उन जैसे महान क्रांतिकारियों को उदंड बच्चा कह कर उनकी सहादत का मखोल उड़ाया?
अहिंसा एक नपुंसक सोच है जो जबरन देश पर थोपी जा रही है,कश्मीर,तिब्बत वारानाशी,मुंबई अटैक इसी सोच का नतीजा है हम अहिंसक शांति के दूत बने अपने घर में पिटते रहते है क्योकि हम सीमा पार नहीं करना चाहते इससे गाँधी के अहिंसावादी सिधांत का मजाक उड़ता है !
गाँधी के अहिंसावादी सिधांत के अनुसार भगवान् राम को लंका जा कर रावण के महल के आगे धरना देना चाहिए था और मांग करनी चाहिए थी की रावण अगर सीता माँ को नहीं छोड़ता पूर्ण स्वतन्त्रता नहीं भी देता तो कम से कम उनसे अशोक वाटिका में मिलने की आजादी दे,जब तक उसका हर्दय परिवर्तन पूर्ण स्वतन्त्रता के लिए न हो
भूतकाल की बात अगर भूतो पर छोड़ दे वर्तमान की बात करे तो ताज होटल के बहार हमारे कमांडो को हाथ में फूल लेकर मौर्चा संभालना चाहिए थाय पाकिस्तान के बोर्डर पर इन आतकवादियो के खिलाफ धरने पर बैठना चाहिए था,हमारे कमांडो ने देश के खातिर हतियार उठाकर क्या गंधिनीति का अपमान किया है,अगर सही किया है तो भगत सिंग ने काया गलत किया था?
जो व्यक्ति अपना घर न संभाल सका हो उससे आपने अपना देश शोंप दिया दिया है अब जो हो रहा है उसके लिए रोने से क्या फायदा!
दस आतंकवादी हमारे घर में घुस कर हमें मरते है,और हम अमरीका के पास जाकर दुहाई देते है. लानत है ऐसी मर्दानगी

आज का युवा बातों का सूत कातने में विश्वास नही करता, कर्म करने में यकीन करता है। मगर आज युवा शरीर में बूढ़ी मानसिकता वाले लोग बातें तो क्रांति की करते है, मगर चाहते यही है कि भगतसिंह पड़ोसी के घर में पैदा हो और हम गांधी की तरह तथाकथित देशपिता बन कर नोटों पर छा जाएं। इस मानसिकता से पीड़ित लोग बेवजह की नुक्ताचीनी में टाईम पास करने में लगे रहते है। ये लोग एक बने बनाए रास्ते पर चलना चाहते है क्योकि उनकी बौद्धिकता पर वृद्धता हावी हो चुकी है। राजनीति बहुत हो चुकी, 64 साल का भारतीय इतिहास इस बात का गवाह है, अब युवाओं को देश की खातिर कर्म करने दो, हम युवाओं को असफल क्रांतियां नही चाहिए। आज का युवा लोरिया नहीं सुनना नहीं चाहता।
क्रांति से हमारा अर्थ है- आमूलचूल परिवर्तन। यह पारिवारिक स्तर से शुरू होकर राष्टीय स्तर तक जाएगी, तो आप जैसे बूढी सोच वालों को आज के युवाओं के खिलाफ लामबद्ध हो जाना चाहिए क्योंकि पहली बगावत आपके घर से ही शुरू हो चुकी है।
रही बात वेलेंटाइन डे जैसे उत्सवों की तो आप जैसे लोग नकल भी सही ढग से नहीं कर सके और प्रेम को बाजारू बना कर छोड़ दिया। शीला मुन्नी जैसे गीत आप जैसे लोगों की दमित वासनाओं का परिणाम है। आज का युवा पीपली लाइव, माय नेम इज खान, थ्री इडियट के रूप में सामाजिक बदलाव का हामी है और यह बहुत जल्द आकर रहेगा।
1857 की क्रांति को सच्चाई को न समझने वाले लोग देश में क्रांति की पहली चिंगारी मानते है। कोई आज के युवा को यह बताए कि यह चिंगारी कौन सी नदी में लगाई थी, जिससे 70 साल बाद विस्फोट हुआ। आज का युवा बूढी मानसिकता वालों को इस बात का हक नहीं देता कि वो युवाओं के जज्बात, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरू, खुदीराम बोस, रासबिहारी बोस, उद्धम सिंह, मदन लाल, आशा भाभी, प्रेमलता, मालती, आजाद, बोस जैसे युवा जांबाजांे के देश के युवाओं को हिजड़ा कहे, क्योकि उसने ऐसा कह कर इन अमर जवानों के परिवार के युवाओं को गाली दी है। उनका देश जो कि उनका परिवार है, इस परिवार का सदस्य युवा हिजड़ा नहीं है।
आप जैसे बूढ़ी मानसिकता वाले महानुभावों को आज के युवा की यह खुली चेतावनी है कि या तो हमारे साथ आ जाए वरना ’हमसे जो टकराएगा,मिट्टी में मिल जाएगा।’
शूरा सो पहचानिए, जो लड़े दीन के हेत
पुर्जा पुर्जा कट मरे, कभी न छाड़े खेत
जो धो प्रेम खेलन का चाव
सिर धर तली गली मोरी आओ
जय क्रांति, जय हिन्द

'भगत सिंह की फाँसी गांधी की नैतिक हार'


आज़ादी के आंदोलन में भगत सिंह के समय में दो प्रमुख धाराएं थीं. एक निश्चित रूप से महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की धारा थी जो उस वक्त सबसे ज़्यादा प्रभावशाली और व्यापक पहुंच वाली थी.दूसरी धारा क्रांतिकारियों की धारा थी जिसके एक प्रमुख नेता थे भगत सिंह. हालांकि इस धारा का आधार उतना व्यापक नहीं था जितना कि कांग्रेस का था लेकिन वैचारिक रूप से क्रांतिकारी बहुत ताकतवर थे.इस दौरान कांग्रेस के गरमदल के नेता, बिपनचंद्र पॉल, लाला लाजपत राय और बालगंगाधर तिलक गुज़र चुके थे और नरमदल वालों का वर्चस्व था जिसकी पूरी लगाम गांधी के हाथ में थी. गांधी इस वक्त अपने दौर के चरम पर थे.गांधी शांतिपूर्वक नैतिकता की लड़ाई लड़ रहे थे जो अंग्रेज़ों के लिए काफ़ी अच्छा था क्योंकि इससे उनकी व्यवस्था पर बहुत ज़्यादा असर नहीं पड़ता था पर मध्यमवर्गीय नेताओं की इस नैतिक लड़ाई का आम लोगों को भी बहुत लाभ नहीं मिलता था.महात्मा गांधी गुजरात के थे. अहमदाबाद उस वक्त एक बड़ा मज़दूर केंद्र था. एक सवाल पैदा होता है कि वहाँ के हज़ारों-लाखों लोगों के लिए गांधी या पटेल ने कोई आंदोलन क्यों नहीं खड़ा किया. बल्कि कुछ अर्थों में गांधी ने वहाँ पैदा होते मज़दूर आंदोलन के लिए यही चाहा कि वो और प्रभावी न हो. मज़दूर आंदोलन में सक्रिय इंदुलाल याज्ञनिक जैसे कांग्रेसी नेता भी उपेक्षित ही रहे.नेहरू थोड़ा-सा हटकर सोचते थे और ऐसे मॉडल पर काम करना चाहते थे जो व्यवस्था में बदलाव लाए पर इस मामले में वो कांग्रेस में अकेले ही पड़े रहे

आज का युवा न बैल है ना भैस



समाज कभी स्थिर नहीं रहता उसमे कुछ ना कुछ परिवर्तन होता रहता है,जोकि लगातार निरंतर चलने वाली एक प्रकिर्या है,ये कोई चमत्कार या जादू नहीं है बिलकुल सरल प्रकिर्या है,जिस समाज में परिवर्तन नहीं होता वह मुर्दा है,सामाजिक मानसिक स्तर पर क्योकि मुर्दा सोच और मुर्दा जिस्म ही हरकत नहीं करते!
भारत में लगातार परिवर्तन हो रहा है जोकि इस बात का गवाह है भारत का आवाम जीवंत है और निरंतर प्रगतिशील है जिस युवा क्रांति की हम बात करते है वो कोई अचानक आने वाली नहीं थी उसकी प्रस्ठभूमि १९३१ में तैयार हुई थी बस अब वक़्त आ गया है उसके आने का,ये तो हमे तय करना है हम नए का स्वागत करते है या आलोचना करते है!
आलोचना से हमारी कलम घबराती नहीं है, वो जवाब देना जानती है, अक्सर कुछ तथाकथित समाजबादी सुधारबादी इससमे रोड़े अटकाने की कोशिश करते है उन्हें ये बर्दास्त नहीं होता की कोई युवा उनका नेत्र्त्ब करे,वो अपना सारा समय इसी उधेड़बुन में ख़राब करने में लगे रहते है की कैसे युवा को नीचा दिखाया जाये,अपमानित किया जाये,आज का युवा इन तथाकथित नतिक्ताबादी रहनुमाओ को आगाह करता है की वो चाहे कितना जोर लगा ले आज का युवा रुकने वाला नहीं!
वो तो परवाना है जलना जानता है, जलने के डर से उड़ना नहीं छोड़ता,भैंस जब पोखर में बैठती है तो पानी में तरंगे उठती है और वो उन तरंगो को सुनामी समझ लेती है ये उसकी गलती नहीं है उसके पूर्वजो ने उससे मूक भाषा में यही समझाया था वो तो उसका अनुसरण कर रही होती है...
आज का युवा न बैल है ना भैस,लेकिन कुछ तथाकथित स्वयाम्संभु सुधारबादी रहनुमा लगातार युवाओ को सुनियोजित तरीके से निशाना बना रहे है,और युवाक्रान्ति जैसे गंभीर विषय को कूपमंडूक का विशवदर्शन समझ रहे है,उन्हें आज का युवा आगाह करता है,ज्वार समंदर में पत्थर फैकने से नहीं आता उसका रंगमंच तो बहूत पहले कही भीतर तैयार हो चूका होता है!
जब इस देश में अहिन्सबादी नपुंसक सोच का गांधीदर्शन आ सकता है है तो युवादर्शन क्यों नहीं? हमारा समाज लगातार परिवर्तनशील है जो की इस बात का गवाह है वो नए का स्वागत करना जानता है...
जय क्रांति जय हिंद
हेमू

आज का युवा न बैल है ना भैस

समाज कभी स्थिर नहीं रहता उसमे कुछ ना कुछ परिवर्तन होता रहता है,जोकि लगातार निरंतर चलने वाली एक प्रकिर्या है,ये कोई चमत्कार या जादू नहीं है बिलकुल सरल प्रकिर्या है,जिस समाज में परिवर्तन नहीं होता वह मुर्दा है,सामाजिक मानसिक स्तर पर क्योकि मुर्दा सोच और मुर्दा जिस्म ही हरकत नहीं करते!
भारत में लगातार परिवर्तन हो रहा है जोकि इस बात का गवाह है भारत का आवाम जीवंत है और निरंतर प्रगतिशील है जिस युवा क्रांति की हम बात करते है वो कोई अचानक आने वाली नहीं थी उसकी प्रस्ठभूमि १९३१ में तैयार हुई थी बस अब वक़्त आ गया है उसके आने का,ये तो हमे तय करना है हम नए का स्वागत करते है या आलोचना करते है!
आलोचना से हमारी कलम घबराती नहीं है, वो जवाब देना जानती है, अक्सर कुछ तथाकथित समाजबादी सुधारबादी इससमे रोड़े अटकाने की कोशिश करते है उन्हें ये बर्दास्त नहीं होता की कोई युवा उनका नेत्र्त्ब करे,वो अपना सारा समय इसी उधेड़बुन में ख़राब करने में लगे रहते है की कैसे युवा को नीचा दिखाया जाये,अपमानित किया जाये,आज का युवा इन तथाकथित नतिक्ताबादी रहनुमाओ को आगाह करता है की वो चाहे कितना जोर लगा ले आज का युवा रुकने वाला नहीं!
वो तो परवाना है जलना जानता है, जलने के डर से उड़ना नहीं छोड़ता,भैंस जब पोखर में बैठती है तो पानी में तरंगे उठती है और वो उन तरंगो को सुनामी समझ लेती है ये उसकी गलती नहीं है उसके पूर्वजो ने उससे मूक भाषा में यही समझाया था वो तो उसका अनुसरण कर रही होती है...
आज का युवा न बैल है ना भैस,लेकिन कुछ तथाकथित स्वयाम्संभु सुधारबादी रहनुमा लगातार युवाओ को सुनियोजित तरीके से निशाना बना रहे है,और युवाक्रान्ति जैसे गंभीर विषय को कूपमंडूक का विशवदर्शन समझ रहे है,उन्हें आज का युवा आगाह करता है,ज्वार समंदर में पत्थर फैकने से नहीं आता उसका रंगमंच तो बहूत पहले कही भीतर तैयार हो चूका होता है!
जब इस देश में अहिन्सबादी नपुंसक सोच का गांधीदर्शन आ सकता है है तो युवादर्शन क्यों नहीं? हमारा समाज लगातार परिवर्तनशील है जो की इस बात का गवाह है वो नए का स्वागत करना जानता है...
जय क्रांति जय हिंद
हेमू