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Saturday, March 9, 2013

इरोम शर्मिला भी तो देश की बेटी है? आज़ादी के छह दशक गुजर जाने के बाद भी हमारा पुलिस महकमा आज भी ब्रिटिश काल में जी रहा है व अंग्रेजो के बनाए गए काले कानूनों का धडल्ले से इस्तेमाल कर रहा है, जबकि यह कानून वर्तमान में अपनी प्रासंगिकता खो चुके है! सच्चाई तो यह है कि पुलिस का इस्तेमाल अंगेजो ने समय समय पर उठ खड़ी होने वाली आवाजो के बर्बर दमन के लिए किया था, अब आजादी के बाद सत्तापक्ष कर रहा है! मणिपुर में विवादास्पद सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफ्सपा) को हटाने की मांग पर पिछले 12 साल से भूख हड़ताल के जरिये मैराथन संघर्ष कर रहीं इरोम शर्मिला को लंबे वक्त तक नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! इरोम शर्मिला पर लगाईं गयी भारतीय दंड सहिंता की धारा 309 कहती है -''जो कोई आत्महत्या करने का प्रयत्न करेगा ओर उस अपराध को करने के लिए कोई कार्य करेगा वह सादा कारावास से ,जिसकी अवधि एक वर्ष तक की हो सकेगी या जुर्माने से ,या दोनों से दण्डित किया जायेगा! ,,,,,पिछले 12 सालों से अनशन कर रहीं सामाजिक कार्यकर्ता और मणिपुर की आयरन लेडी के नाम से मशहूर इरोम शर्मिला पर 2006 में खुदकुशी की कोशिश के मामले में दिल्‍ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने आरोप तय कर दिए हैं! लगाये गए आरोपों पर उत्तर देते हुए इरोम शर्मिला ने अदालत से कहा, 'मैं जिंदगी से प्यार करती हूं. मैं अपनी जिंदगी लेना नहीं चाहती लेकिन मैं न्याय और शांति चाहती हूं.' हालांकि मजिस्ट्रेट ने उनसे कहा कि उन पर खुदकुशी का प्रयास करने का आरोप है और प्रथम दृष्टया उनके खिलाफ आरोप दिखता है! इरोम शर्मिला इंफाल हवाई अड्डे के पास मालोम क्षेत्र में असम राइफल्स के जवानों की गोलियां से 10 नागरिकों की मौत के बाद से ही 2000 में आमरण अनशन पर है, वह फिलहाल न्यायिक हिरासत में हैं और उन्हें नाक के रास्ते से भोजन नली से भोजन दिया जा रहा है! अब हम बात करते है दिल्ली पुलिस के लगाए गए इरोम शर्मिला पर खुदकुशी की कोशिश के बचकाने आरोपों की! गौरतलब है पहले तो ये कि, यह धारा इरोम पर लगाईं नहीं जा सकती, दूसरा गांधी के इस देश में अनशन करना कोई गुनाह नहीं है! धारा 309 , कुख्यात धारा 151 से भी ज्यादा बर्बर है क्योकि सम्पूर्ण दंड सहिंता में ये ही एक ऐसी धारा है जिसमे अपराध के होने पर कोई सजा नहीं है ओर अपराध के पूर्ण न हो पाने पर इसे करने वाला सजा काटता है! ये धारा आज तक न्यायविदों के गले से नीचे नहीं उतरी है क्योंकि ये ही ऐसी धारा है जिसे न्याय की कसौटी पर खरी नहीं कहा जा सकता है! पी.रथिनम नागभूषण पट्नायिक बनाम भारत संघ ए.आई.आर. 1994 एस.सी. 1994 के वाद में दिए गए अपने ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने दंड विधि का मानवीकरण करते हुए अभिकथन किया है कि ''व्यक्ति को मरने का अधिकार प्राप्त है! .''इस न्यायालय की खंडपीठ ने [न्यायमूर्ति आर एम् सहाय एवं न्यायमूर्ति बी एल हंसारिया द्वारा गठित ]दंड सहिंता की धारा 309 को जो कि आत्महत्या के प्रयास को अपराध निरुपित करती है ,असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 के प्रावधानों से विसंगत थी! उच्चतम न्यायालय ने इस निर्णय में अभिकथन किया है कि'' किसी भी व्यक्ति को अपने जीवन के अधिकार का उपभोग स्वयं के अहित ,अलाभ या नापसन्दी से करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता .आत्महत्या का कृत्यधर्म नैतिकता या लोकनीति के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है तथा आत्महत्या के प्रयास के कृत्य का समाज पर कोई हानिकारक या प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है! इसके आलावा आत्महत्या या आत्महत्या के प्रयास से अन्यों को कोई हानि कारित नहीं होती इसीलिए व्यक्ति की इस व्यैतिक स्वतंत्रता में राज्य द्वारा हस्तक्षेप किये जाने का कोई औचित्य नहीं है! दंड सहिंता की धारा 309 को संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत व्यक्ति को प्राप्त स्वतंत्रता का अतिक्रमण निरूपत करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा ''इस धारा का दंड विधि से विलोपन होना चाहिए ताकि दंड विधि का मानवीकरण हो सके, विद्वान न्यायाधीशों ने इस धारा को क्रूर व् अनुचित बताया और कहा कि इस धारा के कारण व्यक्ति दोहरा दंड भुगतता है प्रथम तो वह आत्महत्या की यंत्रणा भुगतता है और आत्महत्या करने में असफल रहने पर उसे समाज में अपकीर्ति या बदनामी भुगतनी पड़ती है! जो काफी पीड़ा दायक होती है ऐसी स्थिति को स्वयं न्यायालय भी अनुचित मानते हैं और इस धारा को विलोपित किया जाना आवश्यक मानते हैं क्योंकि एक ऐसा व्यक्ति जिसने आत्महत्या का प्रयास किया ऐसी स्थिति में होता है कि वह अपने परिवार समाज से फिर से जुड़ सकता है किन्तु उसके लिए दंड का प्रावधान उसके लिए और भी मुश्किलें खड़ी कर देता है! .ऐसा प्रावधान तो आत्महत्या करने वाले के लिए होना चाहिए किन्तु उसके लिए ऐसा संभव नहीं है! .अपने निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने आगे कहा कि यह कहना गलत है कि आत्महत्या करने का प्रयास करने वाले व्यक्ति को दंड नहीं मिलता है जबकि वह तो दोहरा दंड भोगता है प्रथम आत्महत्या करने के प्रयास में उसे पहुंची यंत्रणा और संत्रास ,तथा दूसरे आत्महत्या करने में विफल रहने पर उसकी बदनामी या अपकीर्ति! कुलमिलाकर लब्बोलुआब यह है कि पी.आर.नागभूषण पट्नायिक बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा 26 अप्रैल 1994 को दिए गए निर्णय के परिणाम स्वरुप दंड सहिंता की धारा 309 असंवैधानिक होने के कारण शून्य घोषित कर दी गयी थी लेकिन आज भी इस निष्प्रभावी धारा को पुलिस धडल्ले से इस्तेमाल कर रही है, आये दिन लोगो पर आत्महत्या के प्रयास में अब भी मुक़दमे दर्ज किये जा रहे हैं! क्या यह अवमानना नहीं है? क्या यह लोकतांत्रिक व्यवस्था का मखौल नहीं है? इस सब पर चर्चा करने का कारण यह था कि इरोम शर्मिला के लगाए गए आरोपों की निष्पक्ष जांच की जाती व गुनाहगारो को कठोर दंड दे दिया जाता तो यह मामला इतना बढ़ता नहीं! वैसे भी इस समस्या का हल बंदूक से निकलना नामुनकिन है क्योकि बंदूक में ही हल छुपा होता तो निकल गया होता! इस समस्या के मूल में बांग्लादेशी घुसपैठ और इस मसले पर की जा रही राजनीति है, और जब तक इसके मूल में राजनीति है समस्या का हल होना असम्भव है, लेकिन हमारे राजनेताओं को, यह तो समझना ही चाहिए कि इरोम शर्मिला भी इस देश की बेटी है, उसकी बात भी सुनी जानी चाहिए, नाकि ऐसे मुकद्दमे दर्ज कर असमियो के घावो पर नमक छिडकना चाहिए! boxxxxxxxxxxxxxxx न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला मारुति श्रीपति दूबल बनाम महाराष्ट्र राज्य 1987 क्रि.ला.जन. 743 बम्बई में अभियोजन कार्यवाही इसलिए निरस्त कर दी क्योंकि यह धारा असंवैधानिक है न्यायमूर्ति सांवंत ने इसे संविधान के अनुच्छेद 14 व् 21 के उल्लंघन के कारण शक्ति बाह्य मानाऔर इसके विलोपन के लिए कहा .और इसके कारण निम्न बताये - 1-अनुच्छेद 21 में व्यक्ति को जीवन का अधिकार प्राप्त है जिसमे जीवन को समाप्त करने का अधिकार विविक्षित रूप से शामिल है ऐसा इसलिए क्योंकि अनु.21 में दिए गए मौलिक अधिकारों की व्याख्या अन्य मौलिक अधिकारों के समान की जानी चाहिए चूँकि वक् स्वतंत्रता में न बोलने के अधिकार का भी समावेश है तथा व्यवसाय करने की स्वतंत्रता में व्यवसाय न करने के अधिकार का भी समावेश है अतः जीवन के अधिकार में जीवन को समाप्त करने का अधिकार भी शामिल है . 2- यदि इस बात पर विचार किया जाये कि साधारणत व्यक्ति आत्महत्या की ओर प्रवृत क्यों होता है तो प्राय यह देखा जाता है कि इसके लिए मानसिक अस्वस्थता तथा अस्थिरता ,असह्य शारीरिक कष्ट .असाध्य रोग आसाधारण शारीरिक विकृति सांसारिक सुख के प्रति विरक्ति आदि में व्यक्ति विवश होकर आत्महत्या का मार्ग अपनाता है .इस प्रकार जो व्यक्ति पहले से ही व्यथित ओर जीवन से हताश है क्या उसे आत्महत्या के प्रयास के लिए दंड दिया जाना उचित होगा ? 3- भारतवर्ष में आत्महत्या के अनेक प्रकार चिरकाल से प्रचलित रहे हैं जौहर सती प्रथा आदि प्रमुख रूप से प्रचलित थे ,इस दृष्टि से भी आत्महत्या के प्रयास को अपराध माने जाने का कोई औचित्य नहीं है . इसलिए न्यायालय ने इस धारा को अनु.14 व् 21 का उल्लंघन करते हैं ओर मनमाने भी हैं ये माना! भारत के विधि आयोग ने भी अपने 4 2वे प्रतिवेदन में 1971 में धारा 309 को निरसित किये जाने की अनुशंसा की थी क्योंकि उसके विचार से इस धारा के उपबंध कठोर होने के साथ साथ न्यायोचित नहीं हैं . हेमेन्द्र सिंह हेमू प्रदेशाध्यक्ष हिंदुस्तान स्वराज कांग्रेस नेशनल पार्टी (गरम दल, सुभाषचंद्र बोस गुट)

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