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Saturday, March 9, 2013

सिखों को, किसी के दिए वफादारी के प्रमाण पत्र की जरुरत नहीं हेमेन्द्र सिंह हेमू वर्ष 1984 के दंगो में जलने वाले सिखों की तपिश तो मै महसूस नहीं कर सकता क्योकि मेरी उम्र उस वक्त कम थी लेकिन उस पीड़ा को मै बखूबी महसूस कर सकता हूँ जो उन्होंने न्याय ना मिल पाने के बाद झेली होगी! रातो रात एक बहादुर कौम को गद्दार साबित कर दिया गया, ये जानते हुए भी कि यह वही कौम है जिसने हिन्दू धर्म की रक्षा में तथा भारत की आजादी की लड़ाई में और भारत की आर्थिक प्रगति में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मुगलों, अंग्रेजो से लड़ते हुए अपना सब कुछ खो दिया लेकिन मादरे वतन से गद्दारी नहीं की! वर्ष 1984 में हुए सिख विरोधी दंगों को शायद कुछ लोग भूल चुके होंगे मगर इन दंगो की वजह से हजारों परिवारों को मिले घाव वर्षो बाद भी हरे हैं। उन जख्मों की टीस वे हर दिन और हर पल महसूस करते हैं।अपनी आंखों के सामने अपने बेटे और नाती को मौत के मुंह में जाते देखने वाले हरप्रीत स‌िंह उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि ‘कैसे भूलूं वह दिन...जब दंगा फैल रहा था और मैंने खुद अपने बेटे को समय से पहले दुकान से घर जाने के लिए कह दिया। सरोजनी नगर में हमारी कपड़े की दुकान थी और थोड़ी ही दूरी पर घर था।' दंगों को याद करते उनकी आंखें नम हो जाती हैं... वे कहते हैं कि, 'मैं नहीं जानता था कि अपने बेटे और सात साल के नाती को मौत के मुंह में भेज रहा हूं। रास्ते में हंगामे से बचते हुए किसी तरह मैं जब घर पहुंचा, तो पूछने पर पता चला कि मेरा बेटा और नाती घर नहीं पहुंचे। मैंने पता करने की कोशिश की। काफी देर बाद मुझे पड़ोसियों ने बताया कि भीड़ ने दोनों को मार डाला।' हरप्रीत कहते हैं, 'मैं आज तक नहीं समझ पाया कि आखिर हमारा कसूर क्या था। मैंने अपना बेटा और सात साल के नाती को खो दिया। एक बाप के लिए इससे बड़ा दुख और क्या होगा। मुकदमा व मुआवजा तो चलता रहता है, लेकिन मैंने जो खोया उसकी भरपाई कौन करेगा।' आज से 28 साल पहले यानी 1984 में हुए सिख विरोधी दंगे भारतीय इतिहास के सबसे काले अध्यायों में एक हैं। वह नरसंहार 31 अक्टूबर 1984 को सिख अंगरक्षक द्वारा इंदिरा गांधी की हत्या की प्रतिक्रिया के परिणाम स्वरूप हुआ था, जो एक और तीन नवम्बर 1984 के बीच देश भर में हजारों बेगुनाह लोगों की मौत और विध्वंस का सबब बन गया। उस दंगे में हजारों सिखों को मौत के घाट उतार दिया गया। एक अनुमान के मुताबिक उस दंगे में दस हजार से भी अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। इस नरसंहार की सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि तीन दिनों तक यह खूनी खेल देश के किसी सुदूर कोने में नहीं बल्कि राजधानी दिल्ली में चलता रहा। कांग्रेस के शासन में जब सिखों को मौत के घाट उतारा जा रहा था, उनकी दुकानों को आग के हवाले किया जा रहा था, उनके घर लूटे जा रहे थे और उनकी पत्नियों के साथ बलात्कार किया जा रहा था, तब पुलिस और प्रशासन मूक दर्शक बनकर तमाशा देख रहा था। इसे हर लिहाज से घृणित और जघन्य अपराध कहा जाएगा। 1947 के बाद आजाद भारत में आज तक इतनी बडी और भयानक घटना कभी नहीं हुई। यहां तक कि मुंबई और गुजरात के भी दंगे सिख विरोधी दंगों की तुलना में कमतर ही ठहरते हैं। यह कटु सत्य है कि इस घटना को अंजाम देने वाले और उनके राजनीतिक संरक्षकों में से अधिकांशतः सजा से साफ बच गए हैं और उन्हें उनके कृत्यों के लिए कभी कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकेगा। तो क्या हमें इसे एक बुरा सपना मानते हुए भूल जाना चाहिए? कम से कम दुनिया के सबसे बड़े कथित लोकतंत्र का दम भरने वाले, देश पर थोपे गए प्रधानमंत्री का तो यही कहना है! शायद इससे ज्यादा शर्म की बात कोई और दूसरी होना मुश्किल है! वो भी जब सिखों ने मुल्क की हिफाजत के लिए इतिहास में अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया हो और वर्तमान में किसी राज्य की मिलकियत नहीं सिर्फ सम्मान और न्याय मांग रहे हो! रही बात गद्दारी कि तो सिखों को, किसी के दिए वफादारी के प्रमाण पत्र की जरुरत नहीं है! उनका गौरवशाली इतिहास उनकी बहादुरी, वफादारी, ईमानदारी, वीरता, मेहनतकश होने की चीख चीख कर गवाही दे देता है!

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