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Sunday, March 6, 2011


कल एक भाई ने मुझे से पुछा था की मै कौन हूँ,ये सुन कर मै भी सोचने लगा की मै कौन हूँ......
मै कौन हूँ ये तो नहीं पता मुझे पर इतना तो पक्का हो मै देशभक्त नहीं हूँ,क्योकि मेरे पास बंगला,बड़ी बड़ी गाडी नहीं है,पैसा नहीं है,.......!ये कोई कल्पना नहीं है साथियों अगर मै देशभक्त होता तो ये सब कुछ होता मेरे पास,विस्वास नहीं होता तो किसी राजनीतिक पार्टी के युवा सम्मलेन में जाकर देख लो...
कभी कभी इनमे भीड़ बढ़ाने के लिए मेरी जरुरत पड़ती है,सुंदर सा कार्ड भेजा जाता है मेरे पास,और मै इसी में खुश हो जाता हूँ की लेमोजिन वाले देशभक्त ने मुझे याद किया,इज्ज़त बख्शी....
जब मै वहा पहुचता हूँ तो सबसे पहले अपना फटा जूता छुपाता हूँ सबकी नज़र से और.और देशभक्त से नज़र बचा कर उस भीड़ में शामिल हो जाता हूँ जो देशभक्त के पीछे पीछे नारे लगाती चल रही होती है..और कोशिश करता हूँ किसी की नज़र मेरी फटी पतलून पर न पड़े इस लिए नारा मुह से लगाता हूँ और हाथ पैवंद पर रखता हूँ,आकाश में नहीं उठाता,हो सकता है ये देख कर किसी को मेरे कमजोर होने का अहसास होता हो चलो कोई बात नहीं..
अन्दर मंच पर बहूत सारे देशभक्त नए नए कलफ लगे कुरते पहन का बैठे होते है... और एक एक करके सभी अपने प्राइवेट कलमघिस्सुओ का लिखा युवा एकता के नाम से रटी रटाई विचारधारा को को धयान में रख कर लिखा गया भाषण गर्व से पढ़ते है,जिन सब्दो का उन्हें अर्थ भी पता नहीं होता.
इसी दरमयान मै और मेरे पास बैठे सैकड़ो भूक्कड़ इसी उधेड़बुन में लगे रहते है कब देशभक्तों का देश प्रेम ख़तम हो तो हम स्टाल में लेगा पकवानों का लुत्फ उठाये...
मै पहलवान भी नहीं हूँ क्योकि मुझे अपनी ताकत का अहसास तब होता है,जब सारे भूक्कड़ खाने की मेज की तरफ कूच करते है,और मै उन्हें चीर कर आगे नहीं बढ़ पता...
और बड़े दुःख की बात ये भी होती है सारे भुक्कड़ो के साथ धक्का मुक्की के बीच मेरी पतलून और फट जाती है.... एक हाथ आगे एक हाथ पीछे रख के बड़ा ही लूटापिटा सा घर लौटता हूँ..
मै कलमकार भी नहीं हूँ,क्योकि जब लिखने बैठता हूँ शब्द कही शितिज में खो जाते है,बहूत कोशिस करता हूँ शब्दों की माला गुथने की.पर गुथ नहीं पाता,बैठा बैठा फिर खाली कागज पर आढीटेढ़ी लकीरे खीचता रहता हूँ,अपने हाथ की उलझी आढीटेढ़ी रेखाओ की तरह जिसमे तकदीर का खाना विधवा की मांग की तरह खाली है..!

मै चित्रकार भी नहीं हूँ,जब भी चित्र उकेरने की सोचता हूँ,मन में कल्पना करता हूँ तो सिर्फ और सिर्फ अंतर्मन में जली हुई रोटी,सिल्वर की कटोरी,टूटी हुई खाट,घर्र घर्र करता टेबल फेन ,फटी हुई चप्पल,पैवंद लगी पतलून,एक झोपडी जिसकी छत्त बारिश के मौसम में रात रात भर रोती है ही नजर आता है,और वो सफ़ेद कागज मुझे देशभक्त के कुर्ते की तरह मुह चिढाता है,.....
मै लीडर भी नहीं हूँ क्योकि कोई सफेदपोश मुझे मंच पर चढ़ने नहीं देता,माइक पर बोलना to दूर की बात है...!
आखिर मै बला क्या हूँ,ये जानने के लिए मैंने बहूत रिसर्च की तो पता लगा की मेरी हरकते,और हालात भारत के आम आदमी से मिलते जुलते है,जो राशन डिपू,और सरकारी नल पर ही नेतागिरी,और पहलवानी कर सकता है या कभी कभार ठर्रा पी कर पडोशी से धींगामुस्ती करता है...

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