
यह दौर है भरोसे के त्रासद अंत का
यह दौर है भरोसे के त्रासद अंत काए संबंधों और संवेदनाओं के लगातार छीजते चले जाने का। इस तरह का रोना प्रबुद्ध चेतनाकी दुनिया में फर्ज अदायगी की अक्षर परंपरा बन चुकी है। पिछले तकरीबन दो दशकों में हमारा समय और समाज इन स्थितियों से इतनी बार दो.चार हो चुका है कि अब न कोई सनसनी उसे सहमाती हैए न किसी त्रासद खबर पर वह चौंकता है। बावजूद इसके कहना यही पड़ेगा कि भीतर तक पसर जाने वाले जिस स्याह और क्रूर परिवेश को रचने व उसके साथ जीने की लाचारी हम चाहकर भी नहीं लांघ पा रहेए वह मानवीय चेतना के इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षाकाल है।
aaj ki tasvir badhiya khinch dali .
ReplyDeleteबावजूद इसके कहना यही पड़ेगा कि भीतर तक पसर जाने वाले जिस स्याह और क्रूर परिवेश को रचने व उसके साथ जीने की लाचारी हम चाहकर भी नहीं लांघ पा रहेए वह मानवीय चेतना के इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षाकाल है
badhiya likha hai .
thanx jyoti ji
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